नर्मदाजी की उत्पत्ति की भिन्न-भिन्न पुराणों में भिन्न-भिन्न कथायें हैं। कहीं तो बताया है, सृष्टि के आदि में शङ्करजी के ताण्डव नृत्य के समय शिवजी के स्वेद से नर्मदाजी उत्पन्न हुई। वे ब्रह्मलोक में रहने लगीं। तब तक पृथ्वी पर कोई नदी नहीं थी। देवताओं ने शिवजी से नर्मदा को पृथ्वी पर भेजने की प्रार्थना की। तब शिवजी ने कहा-नर्मदा के वेग को कौन धारण करेगा ? इस पर विन्ध्य पर्वत के पुत्र मेकल ने उनके वेग को धारण करना स्वीकार किया। इसी से ये मेकलसुता भी कहलाती है। विन्ध्यपुत्र मेकल के त्रिकूटाचल, ऋक्ष्यपर्वत ये नाम भी हैं। नर्मंदाजी का माहात्म्य तो प्रायः सभी पुराणों में आता है, किन्तु स्कन्दपुराण और वायुपुराण में तो रेवा खण्ड ही हैं। वायुपुराण की कथा है। शंकरजी और वायुदेव का सम्वाद है, उसे ही मार्कण्डेय मुनि ने युधिष्ठिर को सुनाया है।
वनवास के काल में पांडव अमरकंटक में आये। वहाँ उन्हें मार्कण्डेय महामुनि के दर्शन हुए। धर्मराज युधिष्ठिर ने उनसे भगवती नर्मदाजी की उत्पत्ति की कथा पूछी। इस पर महामुनि मार्कण्डेयजी ने धर्मराज को नमंदाजी की उत्पत्ति इस प्रकार बताई । आदि सत्ययुग में शिवजी समस्त प्राणियों से अदृश्य होकर दश सहस्र वर्षो तक ऋष्यपर्वत - विन्ध्याचल पर तपस्या करते रहे । उसी समय शंकरजी के श्वेत रंग का स्वेद निकलने लगा । वह स्वेद पर्वत पर बहने लगा। उसी से एक परम सुन्दरी कन्या उत्पन्न हो गई। वह कन्या सुन्दरी होने के साथ परम साधन सम्पन्ना और तपस्विनी थी। उसने उसी पर्वत पर शंकरजी के सम्मुख ही एक पैर पर खड़े होकर घोर तप किया।
उसके तप से प्रसन्न शंकरजी शंकरजी ने कहा- "बेटी ! तू जैसा चाहें, जितने चाहे वरदान माँग ले ।" तब नर्मदाजी ने कहा- प्रभो ! यदि आप प्रसन्न हैं तो मुझे इतने वर दीजिये । १ - पृथ्वी पर मैं अमर हो जाऊँ ।
२- जो जीव मेरे में स्नान करें वे पापों से रहित हो जावें ।
३-जैसे उत्तर मैं भागीरथी गङ्गा हैं. वैसे ही दक्षिण में में हो जाऊँ ।
४- समस्त तीर्थों के स्नान का फल मेरे जल में स्नान करने से हो जाया करे । ५ - मेरे दर्शनादि से मुक्ति प्राप्त हो जाय ।
६-आप सदा सर्वदा पार्वती सहित मेरे जल में निवास किया करें । ७- मेरे जल से जिस पाषाण का स्पर्श हो जाय, वह आपका रूप हो जाया करे-नर्मदेश्वर शिव ।
ने इस प्रकार के वर माँगे, तब शिवजी ने तथास्तु सब वर दिये। इतना ही नहीं शंकरजी ने यह भी कहा—“तेरे उत्तर तट पर बसने वाले सुकृति मेरे लोक में और दक्षिण तट पर रहने वाले पितृलोक में जाया करेंगे। तुम विन्ध्य पर्वत पर जाकर निवास करो वहाँ जगत् का कल्याण किया करना ।" तब नर्मदाजी गुप्त भाव से आकर विन्ध्य पर्वत पर प्रकट हुई जो कलिङ्ग देश में है। (पहिले अमरकंटक तक आन्ध्र प्रदेश की सीमा थी) नर्मदाजी के त्रिभुवन सुन्दर स्वरूप को देखकर सभी देवता उनसे विवाह करना चाहते थे, किन्तु कोई भी उनकी महिमा का पार न पा सका तब शिवजी ने उन्हें समुद्र को सौंप दिया। समस्त नदियों में नर्मदाजी की ही ऐसी महिमा है, जो इनके साथ इनके पिता का भी सर्वदा नाम लिया जाता है। सब लोग यही कहते हैं- "नर्मदे हर ! नर्मदे हर !!" नर्मदाजी के किनारे पहिले तो बहुत से त्यागी तपस्वी महात्मा रहते थे। अब भी कहीं-कहीं अच्छे साधु सन्त साधक मिल जाते हैं, अमरकंटक में बहुत से सन्तों के आश्रम हैं। बहुत से अमरकंटक से कुछ दूर भी रहते हैं।
नर्मदे हर...
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